शुक्रवार, 27 मार्च 2009

क्या ये दोस्ती है ?

सड़कों पर बढ़ता जा रहा ट्रैफिक देश की तरक्की का प्रतीक नहीं बल्कि देश की बर्बादी का प्रतीक है। यह बात बेशक किसकी के गले उतरे चाहे न, लेकिन उतरेगी भी कैसे क्योंकि सच तो जहर से भी ज्यादा कड़वा होता है.ये बढ़ता ट्रैफिक हमारे पास कम पड़ते समय की निशानी है, हम ऑफिस जल्द पहुंचने के लिए वाहनों का सहारा लेने लगे हैं, मगर फिर भी हमारे पास समय कम होता जा रहा है. बचपन में जब टीचर कहा करते थे, बच्चों, अगर तुम्हारे शहर में ज्यादा मेडिकल की दुकानें हो जाएं तो ये मत सोचना के तुम्हारा नगर तरक्की कर रहा है, बल्कि ये सोचना कि इस नगर में बीमारों और बेरोजगारों की तादाद बढ़ चुकी है.हमारे पास वाहन तो हैं, लेकिन रिश्तेदारों और दोस्त-मित्रों से मिलने के लिए समय नहीं, हां याद आया, तीन अक्टूबर को तो मित्रता दिवस होता है. चलो इस दिन तो किसी न किसी को भूले बिसरे हुए दोस्तों की याद आती होगी. इसमें कोई दो राय नहीं कि हम जिंदगी के मक्कड़जाल में इतना फंसते जा रहे हैं कि दोस्ती के अर्थ ही भूल गए। हमें दोस्तों की याद कब आती है, जब हमको उससे कोई काम हो या फिर वह किसी बड़ी मुसीबत में फंस गया हो. तब भी हम बस इतना कहकर पल्लू झाड़ते हैं, यार कोई काम हो तो बताना, दोस्ती में पूछने की जरूरत नहीं होती, करनी की जरूरत होती है. आज दोस्ती कुछ ऐसी हो गई है कि बचपन में गली में खेलते खेलते मोहल्ले के लड़कों से दोस्ती होगी, जब पढ़ने की उम्र हुई तो सहपाठियों से मित्रता होगी, जब नौकरी करने लगे तो साथ काम करने वालों से दोस्ती होगी, हम पुराने दोस्तों को भूल जाते और नए दोस्तों के रंग में खुद को रंग लेते हैं. ये कैसी दोस्ती है, जो बढ़ते हुए कदमों के साथ खत्म होती चली जाती है. हम पुराने दोस्तों को क्यों पुराने विचारों की तरह त्यागते चले जा रहे हैं. इतना ही नहीं हम सब कहते हैं वो मेरा दोस्त है, लेकिन मैं कहता हूं वो सिर्फ एक धोखा है, जो हम हमेशा अपने आपसे करते हैं। दोस्त तो भाई से भी बढ़कर होता है, दोस्त तो हमराज होता है. दोस्त तो खुदा की बख्शीश होता है, आज की दोस्ती तो चांदनी की तरह है, जो चार दिन रहती है. आज के युग में वो दोस्त है, जिसका आपसे से स्वार्थ जुड़ा है. अगर आज के युग में सच्चे दोस्त ढूंढने की कोशिश करोगे तो कुछ नहीं मिलेगा.दोस्ती इसे नहीं कहते, दोस्ती के घर तो बहुत दूर हैं, कहते हैं यार को मनाना खुदा से भी ज्यादा मुश्किल है, मगर आज के युग में तो और भी मुश्किल हो गया, मिलने का समय तो है नहीं, मनाने का समय कहां से निकालेंगे. बस मोबाइल पर हैल्लो हाय हो जाती है, तो हम समझ लेते हैं कि दोस्ती रहें, ये कैसी दोस्ती है कि यार को मिलने की चाह भी नहीं मन में, उसको दिल की बातें कहने की भी इच्छा नहीं, आज के दोस्त एक दूसरे को इतना जानते हैं, जितना सफर के दौरान दो मुसाफिर बातें करते करते एक दूसरे को जान लेता हैं.कोई माने या न माने मगर दोस्ती के अर्थ तो दिनोंदिन बदलते जा रहे हैं, जिससे दो अच्छी बातें हो गई, जिसने दो पल तारीफ कर दी, वो अच्छा दोस्त है, और जिस ने बुराई कर दी, वो बुरा दोस्त है. आज ये धारणा हो चुकी है. लेकिन सही मायनों में अच्छा दोस्त भी है, जो आपकी बुराई को आपके सामने बताकर आपको सुधारने का काम कर रहा है. जो आपकी बुराई को आपको कहने से डर रहा है, कहने के लिए साहस नहीं जुटा पा रहा, वो काहे का दोस्त, वो नहीं चाहता के उसके दोस्त में अच्छी बातें प्रवेश करें, उसको डर है दोस्ती टूट जाएगी, आग लगे ऐसे दोस्ती को जो सच सुनने से टूट सकती है.

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